Tuesday 3 December 2013

सुनो जरा कुछ कहता है घर, गुमसुम है पर कहता है घर

सुनो जरा कुछ कहता है घर, गुमसुम है पर कहता है घर
बंद पड़े इस खाली मकान में, बोलो कोई रहता है घर ?
सुबह हुई सूरज है आया
और शाम हुई सूरज था आया
दिन-भर खामोश रहा हूँ मैं
चुपचाप यहीं पड़ा हूँ मैं
मेरे संग ये खिड़की बेचारी
भिड्की थी या बंद बेचारी
उसके ऊपर का आला
और दरवाज़े का ताला
मुझसे यूँ पूछें हैं सारे
अब आए हो जब आ गए तारे
दिन भर घर के बाहर रहा ढूँढता सपनों को
बोल कहाँ छोड़ आया अपनों को
सुनो जरा कुछ कहता है घर, गुमसुम है पर कहता है घर 

मैं चौखट हूँ परेशान
कोई ना आया कोई निशान
मैं तेरी प्रियसी का कमरा ना वो खुशबू, अंधियारा है दूना
उनकी उतरी बिंदी बिन देखो शीशा भी है सूना
और टेढ़ा-सा आँगन मुझको आँख दिखाए, डांटे बरबर
सुनो जरा कुछ कहता है घर, गुमसुम है पर कहता है घर 

प्यारी बिटिया की अलमारी, कहती है मुझसे लाचारी
कब आएगी तेरी लाडो, इन कपड़ो की राजकुमारी
खुद ही साइकल उसकी चलती, कहती है मुझको चल-चल के
नन्हे-से वो हाथ कहाँ हैं, कैसे गिर जाऊं साथ कहाँ है
खेल-खुलौने खुद ही हँसते, मुझको रोने भी ना देते
कहते हैं नव्या ले आओ, इतनी खामोशी सोने ना देते
तेरे पानी का थर्मस और छोटा अम्ब्रेला
पूछे है मुझसे, कब तक सूखा रहूँ अकेला
सुनो जरा कुछ कहता है घर, गुमसुम है पर कहता है घर 

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