Monday 24 September 2012

पिता


बरसों बीत गए यूं चलते
हमको यूं मज़बूत बनाते
क्या धूप-छाँव, कब बरसा सावन
हमको बस करने को पावन
दिन-दिन यूं ही बीत गए
विद्यालय हमको पहुँचाते
घिसा अंगोछा, फटी बनियान
पर मेरा कुर्ता सिलवाते

हाँ, हाँ बिलकुल वो पिता हैं मेरे
मेरी किस्मत रचने वाले
अम्बर-सी छत बने रहे,
जब भी छाए बादल काले
जीवन सारा कटा भागते
मुझको नर्म बिछौना लाते
याद जरा तुम कर लो वो पल
जो पंखा झलते थे सिरहाने 

खाले-खाले एक और गिराई,
रोटी मीठी चटनी साथ
ठुमक-ठुमक चलना सिखलाया
थाम मेरे हाथों में हाथ
ठुमक-ठुमक चलना सिखलाया, थाम मेरे हाथों में हाथ.............. 

Saturday 15 September 2012

यह जीवन क्या है पानी है


यह जीवन क्या है पानी है
सुख-दुःख इसके दो सानी हैं
मानो बस एक जल धारा है
जिसमें बहते ही जाना है 

वक़्त का पहिया चलता कहता
चलते जाना बहते जाना
जाना भी है, जल भी गहरा
मेरा-तेरा स्वार्थ का पहरा
चलता चल मत छोड़ प्रयास
फिर पा लेगा जीने की आस
 

क्या कहता जीवन, जी ले मुझको
कर अथक प्रयास फिर पी ले मुझको
सफल-विफल दो अंग हैं मेरे
पतझर-सावन संग हैं मेरे
जो जान गया वो ज्ञानी है
यह जीवन क्या है पानी है

गाँव-शहर


हरे-भरे खेत, वो नीम का पेड़
सरसों के फूल और मवेसियों का घेर
पंचायत का चबूतरा
सुबह का सूरज बीच गाँव उतरा
धोती-कुर्ता और अंगोछे  का लिबास
रोटी-चटनी और छाछ का गिलास
मिटटी की खुशबु और सुबह की ओस
नीले गगन में चहचहाते पंछी
कंधे पे लिए हल, बैलों के संग
चला जा रहा किसान मदहोश

 
अब चलो देखें थोड़ा शहर
समय की कमी से सर पीटता शहर
कंक्रीट के मकान में घर ढूँढता शहर
रिश्तों को मोम सा डेड बनाता शहर
 

ईट पत्थर के कब्रिस्तान में मॉल का लोकार्पण
यानी देशी बाजार में विदेशी माल का समापन
तभी सूट-बूट में कोई सज्जन हमसे टकराए
सर पे हैट, मूँह में लंबी सिगरेट सुलगाए
हाथ में डॉक्टर का प्रेस्क्रिप्सन, बगल में एक्स-रे दबाए
मैने पूछा कौन हो तुम, कहने लगा मैं बार हूँ
पैग की दूकान हूँ, जान लेने को तैयार हूँ
शरीर ही नहीं आत्मा भी पतित करता हूँ
शहर की चकाचौंध में मैं ही तो भ्रमित करता हूँ..... मैं ही तो भ्रमित करता हूँ....

 

 

 

 

ये उजाली भी अब ढल रही है


ये उजाली भी अब ढल रही है
कलकलाती नदी चुप सी बह रही है
शांत से निर्झर में ना संगीत है
इंसान ही इंसान से भयभीत है 

अब पर्वत भी नीचा लगता है
दिन में भी इंसा सोता है
आलाप यहाँ बिखरा सा है
नव गीत धरा पर रोता है

क्यूं गाता मानव खुद का इतिहास
करता है खुद का परिहास
क्यूं दिवा स्वप्न में जीता है
और दिव्य स्वप्नों का होता ह्रास

जीवन क्या है जिन्दा रहना
या फिर बस जीते ही रहने
क्यूं स्वार्थ चुराता परमार्थ का गहना
क्यूं सुख दे जाता औरों का सहना

Tuesday 4 September 2012

माँ

देखो ये बदला वो बदला, मैं भी बदला
पर माँ तुम वैसी की वैसी हो
सर्द में नर्म धूप-सी मीठी
हाँ बिलकुल माँ जैसी हो 

तुम पत्थर ना कोई मूरत हो
माँ, ममता की सूरत हो
चरणों में तेरे है जन्नत
तुम एक सुन्दर महूरत हो 

दूर से सही पर तेरी महक पा लेता हूँ
कुछ याद हैं तेरी लोरियाँ,
बस उन्हें गुनगुना लेता हूँ .... बस उन्हें गुनगुना लेता हूँ