Saturday 15 September 2012

ये उजाली भी अब ढल रही है


ये उजाली भी अब ढल रही है
कलकलाती नदी चुप सी बह रही है
शांत से निर्झर में ना संगीत है
इंसान ही इंसान से भयभीत है 

अब पर्वत भी नीचा लगता है
दिन में भी इंसा सोता है
आलाप यहाँ बिखरा सा है
नव गीत धरा पर रोता है

क्यूं गाता मानव खुद का इतिहास
करता है खुद का परिहास
क्यूं दिवा स्वप्न में जीता है
और दिव्य स्वप्नों का होता ह्रास

जीवन क्या है जिन्दा रहना
या फिर बस जीते ही रहने
क्यूं स्वार्थ चुराता परमार्थ का गहना
क्यूं सुख दे जाता औरों का सहना

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